बार-बार चुनाव से विकास पर असर, ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ बना राष्ट्रीय बहस का मुद्दा”
नई दिल्ली। देश में लगातार हो रहे विधानसभा और लोकसभा चुनावों को लेकर एक बार फिर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की मांग जोर पकड़ने लगी है। जानकारों का मानना है कि बार-बार होने वाले चुनाव ना सिर्फ़ विकास कार्यों को बाधित करते हैं, बल्कि इससे सरकार, प्रशासन, सेना और अन्य संस्थान भी चुनावी प्रक्रियाओं में व्यस्त रहते हैं। इसका सीधा असर शासन की कार्यक्षमता और संसाधनों के समुचित उपयोग पर पड़ता है।
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक कार्यक्रम में कहा, “बार-बार चुनाव लोकतंत्र को थकाते हैं। इससे न सिर्फ विकास रुकता है, बल्कि प्रशासनिक संसाधनों पर भी अत्यधिक दबाव पड़ता है। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ सिर्फ एक विचार नहीं, बल्कि लोकतंत्र को सशक्त बनाने की दिशा में एक निर्णायक कदम है।”
विशेषज्ञों के मुताबिक, बार-बार आचार संहिता लागू होने से नई नीतियों और योजनाओं पर रोक लग जाती है। इसके साथ ही सुरक्षाबलों की तैनाती, चुनाव कर्मियों की व्यवस्था और अन्य लॉजिस्टिक जरूरतों के चलते करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, जिससे आर्थिक बोझ बढ़ता है।
एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक ने कहा, “हर कुछ महीने में किसी न किसी राज्य में चुनाव होना अब आम बात हो गई है। इससे न केवल नीति निर्माण में विलंब होता है, बल्कि प्रशासनिक मशीनरी का दुरुपयोग भी बढ़ता है।”
गौरतलब है कि हाल ही में केंद्र सरकार ने ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की संभावनाओं की जांच के लिए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया है, जिसकी अध्यक्षता पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कर रहे हैं। यह समिति देशभर में सलाह-मशविरा कर रही है और जल्द ही अपनी रिपोर्ट पेश करने वाली है।
ऐसे में यह मुद्दा एक बार फिर राष्ट्रीय बहस के केंद्र में आ गया है, और इसके संभावित लाभों और चुनौतियों पर राजनीतिक दलों, विशेषज्ञों और आम जनता के बीच गंभीर मंथन जारी है।
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