गोस्वामी तुलसीदास जयंती, रामभक्ति के अमर कवि का जीवन और योगदान
श्रावण मास
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि, यानी अमावस्या के सातवें दिन, रामभक्ति के महान संत, कवि और समाज-सुधारक गोस्वामी तुलसीदास की जयंती श्रद्धाभाव से मनाई जाती है।
तुलसीदास न केवल रामचरितमानस जैसे अमर महाकाव्य के रचयिता थे, बल्कि उन्होंने समूचे उत्तर भारत की भक्ति चेतना को एक नया जीवन प्रदान किया।
जन्मस्थान पर मतभेद, पर भक्ति में एकमत
तुलसीदास जी के जन्मस्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं—
एक मत के अनुसार उनका जन्म 11 अगस्त 1497 को उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले के सोरों नगर में हुआ था।
वहीं दूसरी मान्यता उन्हें 1511 ईस्वी में राजापुर (बांदा, उत्तर प्रदेश) में जन्मा मानती है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने सोरों को ही उनका आधिकारिक जन्मस्थान घोषित किया है।
उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। वे सरयूपारीण ब्राह्मण कुल से थे।
बाल्यावस्था से ही विरक्त, ज्ञान और भक्ति की ओर अग्रसर
तुलसीदास का बचपन अत्यंत दुखों भरा था। माता-पिता की अकाल मृत्यु के बाद वे एक अनाथ बालक के रूप में जीवन की कठिन राह पर चल पड़े।
परंतु, यह पीड़ा ही उनके जीवन की आध्यात्मिक नींव बनी। उन्होंने संस्कृत, वेद, पुराण, व्याकरण और दर्शनों का गंभीर अध्ययन किया।
बाद में उन्हें रामानंदी संप्रदाय के संत स्वामी रामानंद से दीक्षा प्राप्त हुई। यहीं से उनके जीवन ने आध्यात्मिक दिशा पाई।
साहित्य-सर्जना: जनभाषा में भक्ति का संचार
तुलसीदास ने कुल 12 प्रमुख ग्रंथों की रचना की, जिनमें से प्रत्येक ने हिंदी साहित्य और भारतीय समाज को गहराई से प्रभावित किया।
प्रमुख रचनाएँ:
रामचरितमानस (अवधी में)
हनुमान चालीसा
विनय पत्रिका
कवितावली
गीतावली
दोहावली
जानकी मंगल
पार्वती मंगल
वैराग्य संदीपनी
रामलला नहछू
रामचरितमानस: धर्म, दर्शन और भावनाओं का महासागर
‘रामचरितमानस’ तुलसीदास की सबसे कालजयी रचना है, जिसमें भगवान राम के जीवन को अवधी भाषा में अत्यंत भावपूर्ण और सुलभ शैली में प्रस्तुत किया गया है।
यह ग्रंथ सांस्कृतिक चेतना, धार्मिक एकता और नैतिक मूल्यों का अद्भुत संगम है।
उनके दोहे आज भी मार्गदर्शक बनते हैं:
“बड़ें भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथन गावा।”
(मनुष्य शरीर दुर्लभ है — इसे पाकर भक्ति करो, यही तुलसी का संदेश है।)
“तुलसी इस संसार में सबसे मिलिए धाय,
ना जाने किस रूप में नारायण मिल जाए।”
(हर व्यक्ति में ईश्वर की झलक है, इसलिए सबका आदर करो।)
काशी में जीवन का समापन
तुलसीदास जी का जीवन का समापन 1623 ई. में वाराणसी (काशी) में हुआ।
वे जीवन के अंतिम वर्षों में तुलसी घाट पर रहते थे और वहीं भजन, प्रवचन और लेखन में लीन रहते थे।
तुलसीदास का युगबोध और योगदान
उन्होंने संस्कृत की सीमाओं को तोड़कर जनभाषा में भक्ति का संचार किया।
राम को लोकनायक और आदर्श पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया।
तुलसीदास ने हिंदी साहित्य में भक्ति, नीति और अध्यात्म का अद्भुत समन्वय किया।
उन्हें महाकवि वाल्मीकि का अवतार भी माना गया है।
तुलसीदास जयंती का महत्व
श्रावण शुक्ल सप्तमी, तुलसी जयंती के रूप में न केवल उनके स्मरण का दिन है, बल्कि यह रामभक्ति, साहित्य और सद्भाव के मूल्यों को जीवन में उतारने का अवसर भी है।
गोस्वामी तुलसीदास केवल एक कवि नहीं थे, वे एक युगद्रष्टा, समाज सुधारक, और भक्ति के पुरोधा थे।
उनकी रचनाएँ आज भी हमारे जीवन को प्रेरणा देती हैं और राम नाम की महिमा को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं।
“रामहि केवल प्रेम पियारा, जानि लेहु जो जान निहारा।”
(भगवान राम को केवल प्रेम ही प्रिय है – यही तुलसीदास का सर्वोच्च दर्शन है।)
नेशनल कैपिटल टाइम्स