दिल्ली हाईकोर्ट ने दिया विवाह-विच्छेद का आदेश
दिल्ली हाईकोर्ट ने वैवाहिक विवाद से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले में स्पष्ट किया है कि गर्भावस्था किसी भी महिला के लिए सुरक्षा और सम्मान का विषय है, मगर इसका उपयोग गलत व्यवहार को छिपाने या साथी को प्रताड़ित करने के लिए ढाल की तरह नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि विवाह में सम्मान, सहयोग और मानसिक सामंजस्य आवश्यक तत्व हैं, और यदि कोई पक्ष लगातार दूसरे को मानसिक रूप से परेशान करता है, तो यह क्रूरता की श्रेणी में आता है।
मामले में पति ने बार-बार शिकायत की थी कि विवाह की शुरुआत से ही उसे पत्नी की ओर से अपमान, गाली-गलौज और गैर-व्यवहारिक रवैये का सामना करना पड़ रहा था। कोर्ट में प्रस्तुत गवाहों और साक्ष्यों से यह स्पष्ट हुआ कि पत्नी गर्भवती होने के बावजूद पति के प्रति सम्मानजनक व्यवहार नहीं रखती थी और कई बार परिस्थिति को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए भावनात्मक दबाव भी बनाती थी। पति ने यह भी कहा कि इस मानसिक उत्पीड़न ने उसके व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन पर बुरा असर डाला।
हाईकोर्ट ने पारिवारिक अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि यदि संबंध में निरंतर तनाव, अपमान और मानसिक शोषण हो, तो विवाह को बनाए रखना केवल औपचारिकता रह जाता है। कोर्ट ने माना कि पति के द्वारा सहन की गई परिस्थितियाँ “मानसिक क्रूरता” की श्रेणी में आती हैं, और ऐसे में तलाक देना न्यायसंगत है।
फैसले में यह भी स्पष्ट किया गया कि गर्भावस्था किसी भी महिला के लिए संवेदनशील स्थिति होती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वह अपने साथी को लगातार मानसिक रूप से नुकसान पहुँचा सकती है और बाद में इसे जैविक स्थिति का बहाना बना सके। न्यायालय ने पति को तलाक की अनुमति देते हुए कहा कि विवाह तब तक ही सार्थक है, जब तक उसमें पारस्परिक सम्मान और भरोसा बना रहे।
यह निर्णय वैवाहिक कानून में मानसिक क्रूरता की परिभाषा और उसके उपयोग को लेकर एक महत्वपूर्ण उदाहरण माना जा रहा है।












