भारतीय न्याय व्यवस्था भारी बैकलॉग से जूझ रही है: कुल मिलाकर लगभग 5.50 करोड़ मुकदमे विभिन्न अदालतों में निस्तारित होने का इंतजार कर रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक़ सर्वोच्च न्यायालय में करीब 90,000 मामले लंबित हैं, जबकि देश की 25 उच्च न्यायालयों में कुल 63 लाख प्रकरण दर्ज हैं। बाकी लगभग 4.86 करोड़ मामले जिला-स्तरीय और अन्य निचली अदालतों में पेंडिंग बताए जा रहे हैं।
यह विशाल स्टॉक केवल संख्यात्मक समस्या नहीं है — इससे न्याय की गति धीमी होती है, जिन्दगी और रोजगार पर असर पड़ता है, औद्योगिक/व्यवसायिक विवाद लंबित रहकर आर्थिक लागत बढ़ाते हैं और गिरफ्तारी से जुड़ी व्यवहार्य न्यायिक प्रक्रियाओं में देरी जेल अधिभार को बढ़ाती है। अनेक मामलों में पक्षकार दशकों तक न्याय के इंतजार में रहते हैं, जिससे समाज में न्याय के प्रति अविश्वास पैदा होता है।
बैकलॉग के प्रमुख कारणों में न्यायाधीशों और सहायक स्टाफ की कमी, लगातार अनगिनत अडवोकेट-प्रार्थनायें और बार-बार टाली जाने वाली सुनवाइयाँ, प्रक्रियात्मक जटिलताएँ और चुनाव/त्योहार के दौरान स्थगन शामिल हैं। साथ ही सुलह (ADR), लोक अदालतें और तकनीकी संसाधनों का सीमित उपयोग भी महत्वपूर्ण बाधा रहा है।
समाधान के रूप में विशेषज्ञ नियमित रूप से कुछ कदम सुझाते हैं: खाली पदों को शीघ्र भरना; केस मैनेजमेंट और डिजिटल कोर्ट-रूमों का दायरा बढ़ाना; मध्यस्थता, लोक-अदलात व सामंजस्य उपायों को बढ़ावा; फास्ट-ट्रैक बेंच व विशेष न्यायालय स्थापित करना; और सशक्त प्रीकॉन्फ्लिक्ट रेजोल्यूशन मैकेनिज़्म। साथ ही सुनवाईयों का प्रभावी प्रबंधन और अनावश्यक व्यावधानों को रोकना भी जरूरी है।
बिना निर्णायक सुधार के, लंबित मामलों की सूची और घनी होती जाएगी — और न्याय के सिद्धांत “देर से मिला न्याय, न्याय से इनकार के बराबर” की सचाई और गहरी।












